Balancing duality
Insight – 1
2nd Chapter
अपने पांचवे सूत्र में लाओत्से कहते हैं जिस व्यक्ति के मन में सौंदर्य की प्रतीति होती है उसके मन में कुरूपता की भी उतनी ही प्रतीति होगी, जिसे कुरूपता का पता नही उसे सौंदर्य का भी पता नही। सौंदर्य का अनुभव होते ही कुरूपता से परिचय होता है। जब तक सौंदर्य का बोध नही असुंदर का भी अस्तित्व नही। अच्छाई का बोध बुराई के बिना असंभव है। उनका कहना है कि यह सारा जीवन द्वंद्व से ही निर्मित होता है। हम उसी बात पर जो़र देते हैं जिससे विपरीत पहले ही मौजूद हो गया होता है। बुराई और अच्छाई एक ही चीज़ के दो पहलू हैं, एक को हटाना नामुमकिन है। अगर फेंको तो दोनों फेंक दो, बचाओ तो दोनों बच जाएंगे। असाधु नही तो साधु खो जाएगा।
लाओत्से आदिम चित्त की बात कहते हैं, जो भेद नहीं करता, कुरूप और सौंदर्य की रेखा नही बांटता, हम जिसे कुरूप कहें उसे भी प्रेम कर पाता है, और चूंकि प्रेम कर पाता है इसलिए सभी उसके लिये सुंदर हो जाता है।वह सरल स्वभाव में जीने वाला, चित्त और द्वंद्व के भेद के बाहर है। लाओत्से कहते हैं, दोनों को ही छोड़ दो तो उसे ही धर्म कहते हैं, जहां न शुभ रह जाता है न अशुभ, द्वंद्व जहां नही, चित्त अद्वैत में है, वहां धर्म है। उनकी समस्त चेष्टा, चित्त की जो बंधी हुई आदत है चीज़ों को दो में तोड़ लेने की, उससे सजग करने की है, जाग जाने की है।
When the people of earth know beauty as beauty, there arises the recognition of ugliness. When the people of earth all know the good as good, there arises the recognition of evil.
सापेक्ष विरोधों की उत्पत्ति
जब पृथ्वी के लोग सुंदर के सौंदर्य से परिचित होते हैं तभी कुरूप की पहचान शुरू होती है और जब वे शुभ से परिचित होते हैं तभी उन्हें अशुभ का बोध होता है।
Project Details
-
Acrylic on Canvas
-
Round 24" diameter
-
Year 2024