फ़कीरी – 2

फ़कीरी – 2

कबीर ने अपने काव्य में कई क्षेत्रीय भाषाओं का इस्तेमाल किया। उनके वाणी संग्रह ‘बीजक’ में उनकी रचना शैली के अनेकों रूप दिखाई देते हैं, जिनमें एक शैली थी ‘उलटबांसी’…इसमें कबीर बातों को एक पहेली की तरह उलटे ढंग से समझाते हैं। ऐसे ही एक पद की परिकल्पना की कोशिश है मेरी यह कृति।

अंबर बरसै धरती भीजै, यहु जाने सब कोई
धरती बरसै अंबर भीजै, बूझै बिरला कोई।।
गावन हारा कदे न गावै, अनबोल्या नित गावै।
नटवर पेखि पेखना पेखै, अनहद बेन बजावै।।
कहनी रहनी निज तत जानै, यह सब अकथ कहानी।
धरती उलटि आकासहि ग्रासै, यहु परिसा की बाणी।।
बाज पियालै अमृत सौख्या, नदी नीर भरि राख्या।
कहै कबीर ते बिरला जोगी, धरणि महारस चाख्या।।

सामान्य दृष्टिकोण से जब अंबर बरसता है तब धरती भीजती है सभी जानते हैं, पर यह प्रकृति का आधा सच है। जब दृष्टि विस्तार पाती है तब इसमें छुपे रहस्य को देख पाती है।
धरती के मेघ भी आकाश पर बरसते हैं, ये हरे हो गए वृक्ष, फूलों की सुगंध, पक्षियों के कलरव, सूरज की किरणों में समाती नदी से उठती भाप, इन्हें धरा वापस लौटा रही है और यह जितना लौटाती है, उतना ही गहन हो कर वापस आता है। जब भी इस धरा पर कोई बुद्ध या कबीर होता है, और भरी हुई चेतना वापस लौटती है परमात्मा की तरफ, तब महादान घटित होता है। एक बादल की तरह आकाश पर बरस जाती है पृथ्वी, उस दिन आकाश भीग जाता है। जीवन एक गहन एकात्म है, यहां लेने और देने में एक संतुलन है और यह एक वर्तुलाकार प्रक्रिया है।

‘गावन हारा कदै न गावै’ कबीर कहते हैं, जो असली गानेवाला है कभी गाता नहीं, उससे स्वयं गीत पैदा होता है,उसका होना ही गीतपूर्ण है, वही परमात्मा है। उससे एकाकार हो शून्य में प्रवेश करते उसका गीत सुनाई देने लगेगा। उसका नृत्य तो सारा दृश्य जगत है, ये फूल-पौधे,आकाश, वृक्ष, बादल, नदी, पंछी, जीव-जन्तु, ये सब उसके नृत्य की भाव-भंगिमाएं हैं। उसकी वीणा तो अनहद बज रही है, ठहर कर सुनने की जरूरत है। सृष्टि में ही सृष्टा छुपा है।

‘कहनी रहनी निज तत जानै’ इस वाक्य में कबीर का कहना है
वह स्वयं को जान लेता है, उस पहचान के साथ ही उसका कहना, सोचना, उसका आचरण, सब एक हो जाता है। क्योंकि सबके पीछे वह एक को खोज लेता है। इसे कहना मुश्किल है क्योंकि कहने से ही यह गलत समझा जाता है इसलिए अकथ कहानी है। ‘धरती उलटि आकासहि ग्रासै’ -यानी जीवन को जैसा अब तक समझते रहे हैं उससे ठीक उलटा नियम है, जैसे धरती उलट कर आकाश को ग्रस जाए, या जैसे बूंद में सागर गिर जाए। स्वयं को जान लेने से ही सब सध जाता है, जिन्होंने जाना है, उनकी वाणी है। ऐसी घड़ी आती है कि बूंद ग्रस लेती है सागर को, यही परम-पुरुषों की वाणी है।
‘बाज पियालै अमृत सौख्या’…उस घड़ी में अमृत पीया जाता है, न प्याली की जरूरत नहीं होती है न पीने की जरूरत। ‘नदी नीर भरि राख्या’- फिर नदी सागर में नहीं गिरती क्योंकि फिर तो नदी में ही सागर समा जाता है। ‘कहै कबीर ते बिरला जोगी’ वास्तविक योगी वही जो आंख बंद कर के भीतर परमात्मा को चखता है और आंख खोल कर जगत को चखता है, जिसका बाहर और भीतर एक हो जाता है। कबीर कहते हैं संसार या भोग को छोड़ना नहीं, उसे जानना है, जीना है परिपूर्णता से, ताकि उसमें छुपा परम स्वाद मिल जाए। जिन्होंने पृथ्वी को छोड़ा नहीं, पृथ्वी के महारस को चख लिया। तब बाहर जो आकाश है, वही भीतर का आकाश बन जाता है, और एकात्म घटित होता है!

Project Details

  • Acrylic on Canvas

  • Size : 4ft x 2 ft

  • Year 2023